Tuesday 28 January 2014

माँ-बाप

         

 (एक)

सपने लेते रहे आकार
महानगर की इमारतों की तरह
बड़े और बड़े / भव्य और विशाल
सपने बढ़ते रहे
आगे.. से आगे
हमारी ज़रूरतें
पैर फैलाने लगीं

           (दो)

माँबाप की ज़रूरतें
होती गईं छोटी.. और छोटी 
गाँव के अधटूटे मकान में 
महज़ दो वक्त की रोटी तक सिमट गईं


          (तीन)

वे कभी नहीं आए
हमारे सपनों के बीच
मगर जुड़े रहे हमसे
अपनी दुआओं के साथ


Wednesday 8 January 2014

गज़लें

२१२ २१२ २१२ २१२
फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन

      गज़ल (एक)

ज़िंदगी से मेरी, उनका जाना हुआ
अपनी मजबूरियों का बहाना हुआ

राह जब से हमारी जुदा हो गई
बीच अपनों के रहकर बेगाना हुआ

बढ़ गयी हैं मेरी अब परेशानियाँ
जब से गैरों के घर आना जाना हुआ

है कठिन दौर ये, ऐ खुदा सब्र दे
नेकियों का चलन अब पुराना हुआ

जाने अल्लाह को क्या है मंज़ूर अब
फिर तुम्हारी गली मेरा जाना हुआ

याद में क्यों पुरानी भटकता है दिल
उनसे बिछड़े हुये तो जमाना हुआ

गज़ल (दो)

आपका घर मेरे, आना जाना हुआ
रौनकें बढ़ गईं दिल दीवाना हुआ

लौट कर आ गई है मेरी हर ख़ुशी
जिस घड़ी आपका लौट आना हुआ

मिल गई है मुझे इक नई राह अब
जब से गैरों के घर आना जाना हुआ

आदमी अपनी हद पार करता है जब
उसका गर्दिश में ही फिर ठिकाना हुआ

ढूँढना नेकियाँ जिनकी फ़ितरत में है
उनका हँसना हँसाना खजाना हुआ

दुश्मनों से मुझे कुछ शिकायत नहीं
अब तो मै दोस्तों का निशाना हुआ

(यह गज़ल तरही मिसरा - "जब से गैरों के घर आना जाना हुआ" पर आधारित है ।)