रोज़ होती रही चर्चायें
बैठकों पे बैठकें
कार्यालयों से लेकर चौपालों तक
कारखानों से लेकर शेयर बाज़ारों तक
हर जगह
कोशिशें जारी हैं
कैसे बढ़े
कितना बढ़े
कहाँ-कहाँ कितनी गुंजाईशें है
सभी लगे हैं
देश विकसित हो या विकासशील
या कि हो अविकसित
चिंतायें सबकी
एक है
कैसे बढ़े विकास-दर
कैसे बढ़े व्यापार
बाज़ार भाव
कैसे बढ़े निर्यात
फिर चाहे
मौत का सामान ही क्यों न
हो
व्यापार बढ़ना चाहिए
विकास-दर बढ़ती रहनी
चाहिए
और इंसानियत की दर
घटते - घटते
इतनी घट गई
कि अब
अव्वल तो चर्चा नहीं होती
और जब होती है
तो किसी के पास
वक्त ही नहीं होता
सार्थक और सही बात है
ReplyDeleterecent poem : मायने बदल गऐ
शुक्रिया रोहितास.
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