(एक)
सपने लेते रहे आकार
महानगर की इमारतों की तरह
बड़े और बड़े / भव्य और विशाल
सपने बढ़ते रहे
आगे.. से आगे
हमारी ज़रूरतें
पैर फैलाने लगीं
(दो)
माँ–बाप की ज़रूरतें
होती गईं छोटी.. और छोटी
गाँव के अधटूटे मकान में
महज़ दो वक्त की रोटी तक सिमट गईं ।
(तीन)
वे कभी नहीं आए
हमारे सपनों के बीच
मगर जुड़े रहे हमसे
अपनी दुआओं के साथ ।
तीनो मुक्तक बेहतरीन...
ReplyDelete:-)
हौसला अफजाई के लिए बहुत शुक्रिया अदरणीया रीना जी ।
Deleteसच लिखा है ... जुड़े रहते हैं वो हमेशा चाहे हम भूल जाएं उन्हें अपने सपनों की खातिर ...
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय दिगंबर जी आपकी हौसला अफजाई हमेशा प्रेरणा देती है।
Deleteआभार......
लाजवाब मुक्तक...
ReplyDeleteवाह!!!
वाह!!बेहतरीन !
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