मुद्दतों बाद मुझे दिल से पुकारा उसने
धीरे धीरे ही सही खुद में उतारा उसने
मुझको हर मोड़ पे हर रोज़ सँवारा उसने
ख़ाक था मै तो, किया मुझको सितारा उसने
बुझ रही आग को इस दिल में जलाने के लिए
दर्द का घूँट मेरे दिल में उतारा उसने
वो तो हर हाल में हालात से लड़ सकता था
जाने क्या बात हुयी, खुद को ही हारा उसने
ये न मालूम था, वो इतना बादल जाएगा
बस पलटते ही मेरी पीठ पे मारा उसने
दफ्न कर बैठे थे जिस आग को बरसों पहले
फिर से सुलगा दी मुझे करके इशारा उसने
आग तो आग है इन्सां को जला देती है
बदले की आग में, बस खुद को ही मारा उसने
खेल में दाँव तो उसके थे, हर इक बार मगर
बारहा मुझको अखाड़े में उतारा उसने
उसकी आवाज़ पे लब्बैक कहा है हरदम
आज़माने के लिए जब भी पुकारा उसने
ज़ख्म ही ज़ख्म दिये हमने ज़मीं को लेकिन
अपनी बाहों का दिया सबको सहारा उसने
उसकी बातों का असर ऐसा हुआ है जैसे
मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने
पुछल्ला
फिर जगाने के लिए सोयी हुयी गैरत को
इक नया दर्द मेरे दिल में उतारा उसने
बहुत ही लाजवाब शेर हैं इस ग़ज़ल के ...
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