Thursday, 18 February 2016

पिता


वो छुपाते रहे अपना दर्द
अपनी परेशानियाँ
यहाँ तक कि
अपनी बीमारी भी….

वो सोखते रहे परिवार का दर्द
कभी रिसने नहीं दिया
वो सुनते रहे हमारी शिकायतें
अपनी सफाई दिये बिना ….

वो समेटते रहे
बिखरे हुये पन्ने
हम सबकी ज़िंदगी के …..

हम सब बढ़ते रहे
उनका एहसान माने बिना
उन पर एहसान जताते हुये
वो चुपचाप जीते रहे
क्योंकि वो पेड़ थे
फलदार
छायादार ।

7 comments:

  1. पिता के व्यक्तित्व को साकार करती भावपूर्ण रचना ...

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  2. बहुत शुक्रिया आदरणीय दिगंबर जी .... स्नेह बनाये रखें ।

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  3. खान साहब आपकी यह रचना जिसका नाम 'पिता' है , वो बेहद सुन्दर व सफल रचना है....इसमें आपने एक पिता के जीवन का सम्पुर्ण कार्यों का वर्णन किया है... ऐसी रचनाओ की अभिलाषा शब्दनगरी के पाठकों को हमेशा रहती है.....आपसे अनुरोध है कि आप शब्दनगरी पर भी ऐसी ही रचनाये प्रस्तुत करें...

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  4. हम सब बढ़ते रहे
    उनका एहसान माने बिना
    उन पर एहसान जताते हुये
    वो चुपचाप जीते रहे
    क्योंकि वो पेड़ थे
    फलदार
    छायादार ।
    वाह!!!
    लाजवाब सृजन...

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  5. वाह!!शानदार सृजन !पिता हमेशा वट वृक्ष की तरह होता है ।

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  6. बहुत सुंदर प्रस्तुति

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