वो छुपाते रहे अपना दर्द
अपनी परेशानियाँ
यहाँ तक कि
अपनी बीमारी भी….
वो सोखते रहे परिवार का दर्द
कभी रिसने नहीं दिया
वो सुनते रहे हमारी शिकायतें
अपनी सफाई दिये बिना ….
वो समेटते रहे
बिखरे हुये पन्ने
हम सबकी ज़िंदगी के …..
हम सब बढ़ते रहे
उनका एहसान माने बिना
उन पर एहसान जताते हुये
वो चुपचाप जीते रहे
क्योंकि वो पेड़ थे
फलदार
छायादार ।
पिता के व्यक्तित्व को साकार करती भावपूर्ण रचना ...
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया आदरणीय दिगंबर जी .... स्नेह बनाये रखें ।
ReplyDeleteखान साहब आपकी यह रचना जिसका नाम 'पिता' है , वो बेहद सुन्दर व सफल रचना है....इसमें आपने एक पिता के जीवन का सम्पुर्ण कार्यों का वर्णन किया है... ऐसी रचनाओ की अभिलाषा शब्दनगरी के पाठकों को हमेशा रहती है.....आपसे अनुरोध है कि आप शब्दनगरी पर भी ऐसी ही रचनाये प्रस्तुत करें...
ReplyDeleteहम सब बढ़ते रहे
ReplyDeleteउनका एहसान माने बिना
उन पर एहसान जताते हुये
वो चुपचाप जीते रहे
क्योंकि वो पेड़ थे
फलदार
छायादार ।
वाह!!!
लाजवाब सृजन...
वाह!!शानदार सृजन !पिता हमेशा वट वृक्ष की तरह होता है ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteWah!!!
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