Tuesday 3 February 2015

तरही गज़ल : न जाने कब हो सहर कौन इंतिज़ार करे ।

तुझे ये हक़ है सितम मुझपे तू हज़ार करे
मगर वकार को मेरे न तार तार करे 


तेरी ही फ़िक्र में गुज़री है सुब्हो-शाम मेरी 

कभी तो मुझको भी अपनों में तू शुमार करे 


मै तेरे साथ हूँ जब तक तुझे ज़रूरत है

तुझे ये कैसे बताऊँ कि एतबार करे 


तू मेरे साथ रहा और दो कदम न चला

अजीब फिर भी भरम है कि मुझसे प्यार करे 


भुला चुका हूँ, नहीं है जुबां पे नाम तेरा

ये बात और है, दिल अब भी इंतिज़ार करे 


सफर कठिन है बहुत और दूर है मंज़िल

न जाने कब हो सहर कौन इंतज़ार करे

2 comments:

  1. भुला चुका हूँ, नहीं है जुबां पे नाम तेरा
    ये बात और है, दिल अब भी इंतिज़ार करे ...
    वाह ... बहुत ही लाजवाब शेर हैं इस कमाल की ग़ज़ल का ... इंतज़ार है की रहता ही है फिर भी ...

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    1. बहुत शुक्रिया आदरणीय दिगंबर जी, आपने बहुमूल्य समय रचना पर दिया एवं उत्साह वर्धन किया आभार...

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