मैं अपने हाथ
गिरवी रख आया हूँ
चंद सिक्कों के बदले
ख़ुद का
सौदा कर आया हूँ
मैं जानता हूँ
कुछ दिनों तक
पत्नी
नहीं देगी ताने
माँ
कुछ और दिन
जी लेगी
खिलौने बच्चों के लिए
कुछ दिन तक
ख़ुशी का सामान बनेंगे
सब ख़ुश हैं
और मैं
अपने ही हाथों से
लाचार हूँ
अपाहिज हो गया हूँ ।
मर्मस्पर्शी रचना..
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया रीना जी ।
ReplyDeleteसुभानाल्लाह........वाह बहुत ही शानदार ।
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया ।
ReplyDeleteकभी कभी ज़मीर कितना मजबूर हो जाता है ...नादिर जी बहत ही दर्द भरा है इन शब्दों में ....और दुःख तो इस बात का है की यह हक़ीकत है
ReplyDeleteओह ... कितना लाचार होता है आदमी ...
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया सरस जी और संगीता जी
ReplyDeleteदो अशआर आप दोनों को नज्र
माँ-बाप का साथ किसे अच्छा नहीं लगता
मेरी मजबूरियों से खुदा बचाना मुझको
वो शिफत जो अपनों से दूर कर दे
तू ख्वाहिशों से ऐसी बचाना मुझको
बेहद सुन्दर रचना
ReplyDeleteशुक्रिया ओंकार जी
Deleteबेहद मर्मस्पर्शी रचना .....
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया उपासना जी
Deleteबहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति .पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब,बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
ReplyDeleteब्लॉग पर आने के लिए बहुत शुक्रिया मदन मोहन जी
ReplyDeleteआपने अपने विचारों से सराबोर कर दिया ।
बहुत आभर