Monday, 15 October 2012

नदियाँ


पहाड़ों से निकलती
इठलाती, बलखाती
झरनों में गिरती
मैदानों में मचलती
नदियाँ
शहरों तक आते आते
बन जाती हैं
गंदा नाला

पहाड़ों से निकलती
इठलाती,बलखाती
झरनों में गिरती
मैदानों में मचलती
नदियाँ का बूँद-बूँद
निचोड़ लिया जाता है
मानो वो नदियाँ नहीं
जागीर हो किसी की

पहाड़ों से निकलती
इठलाती, बलखाती
झरनों में गिरती
मैदानों में मचलती
नदियाँ  को
बांध दिया जाता है
बाँधों की जंजीरों से

पहाड़ों से निकलती
इठलाती,बलखाती
झरनों में गिरती
मैदानों में मचलती
नदियाँ
शहरों की बढ़ती ज़रूरतों को
पूरा करते-करते
सुप्त हो गई हैं
जिंदगी और मौत
की लड़ाई
लड़ रही हैं
मगर अंतिम साँसों तक
करती रहेंगी
सबकी ज़रूरतें पूरी
और सूखने के बाद भी
रेत और उर्वरा देकर जाएँगी
हमारे कल के लिए ।

6 comments:

  1. एक सच्चाई...नदियों की व्यथा ना किसी से छुपी है ना छुपेगी.....|

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  2. सच है mantu जी,
    हमारे भी कुछ फर्ज़ है prakratic चीज़ों के प्रति,हम लोग सिर्फ उसका दोहन कर रहे है और नष्ट कर रहे है।

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  3. जिसके जिम्मेवार हम हैं..

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  4. सही कहा अपने अमृता जी ।

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  5. नदियों की व्यथा को खूबसूरती से लिखा है ...

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  6. बहुत शुक्रिया संगीता जी

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